Shree SitaRam Bhagwan ji : श्री सीता माता जी का संपूर्ण परिचय : श्री सियाराम

श्री सीता माता जी किस का अवतार थीं ?

श्री सीता माता जी रामायण की एक प्रमुख पात्र थीं, जिनका विवाह स्वयं भगवान श्री विष्णु के अवतार श्री राम जी से हुआ था | इसलिए माता श्री सीता के रूप में स्वयं धन की देवी श्री लक्ष्मी माता जी ने अवतार लिया था | भगवान श्री विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने रावण और कुंभकरण के रूप में कैकसी के गर्भ से जन्म लिया | बचपन में ही रावण और कुंभकरण ने श्री ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की और वरदान प्राप्त किया तथा बड़े होने पर सबसे पहले रावण ने अपने ही भाई कुबेर से नाना सुमाली की मदद से लंका का राज छीन लिया और राक्षस साम्राज्य की स्थापना करके राक्षसों का अधिपति बन गया इसके बाद रावण ने ऋषि मुनियों राजाओं तथा जनसाधारण को कष्ट देना शुरू कर दिया | रावण तथा उसके अनुचरों के दुष्कर्म और अत्याचारों से नाग, गंधर्व ,देवी- देवता ,ऋषि ,मनुष्य सभी त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे तब भगवान श्री विष्णु ने राक्षसों को उनके पापों का दंड देने के लिए भगवान श्री राम का अवतार लिया श्री शेषनाग जी ने श्री लक्ष्मण का अवतार और श्री लक्ष्मी मां ने माता श्री सीता का अवतार धारण किया था |

श्री सीता माता जी की जन्म कथा

श्री वाल्मीकि रामायण में महर्षि श्री वाल्मीकि जी ने श्री सीता माता जी के जन्म की कथा विस्तार से बताई है | जब ऋषि श्री विश्वामित्र जी भगवान श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी के साथ मिथिला नगरी पहुंचते हैं तो मिथिला नगरी के राजा श्री जनक उन्हें अपनी बेटी श्री सीता जी के जन्म के बारे में बताते हैं यह वर्णन कुछ इस प्रकार आता है – एक बार की बात है जब मिथिला नगरी में कई वर्षों से बारिश नहीं हुई थी जिस वजह से वहां पर अकाल पड़ गया था नगर के सारे निवासी पानी ना होने की वजह से बेचैन हो गए थे तो उन्होंने जाकर राजा श्री जनक से इस समस्या का हल ढूंढने की बात कही मिथिला नगरी के राजा श्री जनक बहुत ही चिंतित हो गए उन्होंने ऋषि मुनियों के साथ इस विषय पर विचार विमर्श कर कोई उपाय सुझाने की विनती की तब ऋषियों ने उन्हें सलाह दी कि वह स्वयं जाकर कड़ी मेहनत के साथ खेतों में हाल चलाएं जिससे श्री इंद्रदेव जी उनसे प्रसन्न हो जाएंगे और इस समस्या का समाधान जरूर निकल जाएगा | ऋषियों की यह राय मानकर राजा श्री जनक खेतों में हल चलाने लगे | स्वयं मिथिला के राजा श्री जनक खेतों में हल चल रहे हैं यह देखकर सारी प्रजा इकट्ठा होने लगी और भगवान से प्रार्थना करने लगी की राजा की मेहनत को फल जरुर मिले तब अचानक जमीन जोतते हुए उनके हल का फाल यानी सीत जमीन में फंसे किसी चीज से टकराकर फंस गया ,यह देखकर राजा ने उस जगह पर खोदने के लिए कहा तब सिपाहियों ने फंसे हुए फाल को बाहर निकाला और वहां की जमीन खोदने लगे ,जैसे ही जमीन में थोड़ा सा गड्ढा बन गया उसमें से एक बड़ी सी पेटी बाहर निकली राजा श्री जनक और रानी श्री सुनैना ने उस पेटी को खोलकर देखा तो पेटी के अंदर एक नन्ही सी बालिका उन्हें दिखाई दी,यह देख राजा रानी और गांव के सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए तब अचानक आकाश में मेघ गरजने लगे और जोर की बारिश होने लगी ,यह देख मिथिला नगरी के लोग खुशी से झूमने लगे राजा श्री जनक के हल से टकराकर जमीन से प्रकट हुई उसे बालिका ने तो मिथिला नगरी का काल मिटा दिया था राजा श्री जनक ने बड़ी खुशी से उसने नन्ही बालिका को अपनी बेटी मान लिया |

एक अन्य कथा के अनुसार राजा श्री जनक निःसंतान थे इसीलिए ऋषियों की सलाह पर वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को पुष्य नक्षत्र में मंगलवार के दिन महाराजा श्री जनक ने संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार कर करने के लिए हल से भूमि जोता | हल चलाते समय उनका हल एक धातु से टकराकर रुक गया और उस स्थान की भूमि को खोदा गया तो उसमें से एक घड़ा निकला जिसमें माता श्री सीता नवजात शिशु के रूप में विद्यमान थीं | इसके बाद मिथिला में घनघोर वर्षा हुई और प्रजा खुशहाल हो गई निःसंतान राजा श्री जनक ने कन्या को ईश्वर की कृपा मानकर अपनी पुत्री बना लिया |

हल के सीत से टकराने की वजह से उनका नाम श्री सीता रखा गया | धरती से प्रकट हुई वह कन्या श्री भूमिजा नाम से भी जानी गई | राजा श्री जनक की पुत्री थी इसलिए वह श्री जानकी भी कहलाई, तो मिथिला नगरी की राजकुमारी होने के कारण उन्हें श्री मैथिली भी कहा गया ऐसे असाधारण रूप से प्रकट हुई माता श्री सीता का विवाह आगे जाकर भगवान श्री राम के साथ हुआ | श्री सीता मां के जीवन काल में कई कठिनाइयां आई परंतु अपनी धैर्य ,निष्ठा और पतिव्रता के कारण उन्होंने सारी मुश्किलों का सामना किया | सभी लोगों के लिए वे एक आदर्श स्त्री बनीं | आज भी सारे भक्त भगवान श्री राम के साथ माता श्री सीता की भी पूजा – अर्चना करते हैं | मैथिली नगरी आज के नेपाल देश में स्थित है इसलिए नेपाल में भी माता श्री सीता की पूजा होती है | श्री सीता नवमी के दिन कई स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं | कई भक्त मां श्री सीता के मंदिर में उनके दर्शन के लिए नेपाल के मिथिला नगर में जाते हैं | इसी तरह वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को प्रकट हुईं माता श्री सीता का जन्म दिवस पूरे विश्व में मनाया जाता है |

श्री सीता माता जी के बचपन की कथा

श्री सीता माता जी के बचपन की यह कथा एक किताब जिसका नाम The Untold Story Of Shree Sita By Dena Merriam से ली गई है और यह किताब Dena Marriam के पूर्व जन्म की स्मृतियों के बारे में है |

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने श्री अर्जुन से यह कहा कि हे अर्जुन ! तुम्हारे और मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं मुझे तो अपने सारे जन्म याद है लेकिन तुमको याद नहीं रह सकते क्योंकि तुम मनुष्य हो पर कुछ लोग ऐसे हैं इस दुनिया में जिनको शायद भगवान की कृपा से अपने पिछले जन्म की कुछ स्मृतियां याद रहती हैं, Dena Marriam को भी अपनी पिछले जन्म की कुछ स्मृतियां याद आती हैं जिसमें उन्हें लगता है कि वह श्री सीता माता जी के बचपन में उनकी एक दासी थीं और वह राजा श्री जनक के महल में रहकर श्री सीता माता जी की सेवा किया करती थीं | उन्होंने श्री सीता माता जी को वहां से देखा जब राजा श्री जनक उनको कहीं से महल में लेकर आते हैं और वह एक नवजात शिशु के रूप में महल में आती हैं |

Dena Marriam यह भी कहती हैं अपनी किताब में कि यह यादें उनको उनकी मेडिटेशन में ध्यान लगाने से अपने आप आईं और यह भी कहती है कि शायद वह उनकी कल्पना भी हो सकती हैं | राजश्री जनक की एक पुत्री थीं पर कोई पुत्र नहीं था ऐसी अवस्था में भी राजा श्री जनक चाहते थे कि उनकी एक दूसरी पुत्री हो और उसके लिए बहुत ज्यादा पूजा – पाठ और ध्यान लगाते थे ,ऋषि – मुनियों को बुलाते थे और जब कोई पूछता कि आप पुत्र क्यों नहीं चाहते तो वह बोलते थे कि मैंने देखा है कि धरती की प्राकृतिक व्यवस्था में परिवर्तन आ रहा है और इसीलिए इनको स्वयं श्री शक्ति माता का अवतार एक पुत्री के रूप में चाहिए जो इस दुनिया में प्राकृतिक व्यवस्थाओं को फिर से संतुलन में ला सकें और ऐसी चाह रखते हुए राजा श्री जनक अपनी महारानी के साथ बहुत ज्यादा ध्यान लगाते थे ,पूजा-पाठ आदि करते थे और वह सब कुछ करते जिससे उनको लगता कि शायद उन्हें एक पुत्री का वरदान प्राप्त हो सकेगा | समय का चक्र ऐसे ही चलता रहा , राजा श्री जनक अपनी पूजा-पाठ और ध्यान में लग रहे | एक दिन महल में यह चर्चा होनी शुरू हुई कि राजा श्री जनक जब एक जगह कहीं पर हल चला रहे थे तो वहां उन्हे धरती से एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज आई जिसे राजा श्री जनक अपने महल में लेकर आ गए | Dena Marriam आगे लिखती है कि वैसे तो राजा श्री जनक का बहुत समय अपने राज – काज और ऋषि मुनियों के साथ गुजरता था लेकिन जब माता श्री सीता उनके महल में एक छोटे बच्चे के रूप में आईं तो राजा श्री जनक जी का व्यवहार थोड़ा सा बदल गया, उनको महल से जाने का मन नहीं होता और महल में ही वह काफी समय माता श्री सीता के साथ गुजारते और ऐसा काफी समय तक चला जब तक माता श्री सीता थोड़ी सी बड़ी हो गईं | जब माता श्री सीता थोड़ी और बड़ी हुईं तो उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट करनी शुरू की कि वह महल से बाहर जाना चाहती हैं, फिर राजा श्री जनक जहां जाते उनको अपने साथ लेकर जाते थे इस छोटी अवस्था में श्री सीता माता जी ने एक ध्यान की शक्ति को दिखाना शुरू किया, वह बहुत छोटी अवस्था में ही अपने महल के आसपास के जंगलों में चली जातीं और वहां पर ध्यान लगाती थीं और घंटों-घंटों ध्यान लगाती थीं | कई बार उनको ढूंढने के लिए सेवक-सेविकाएं जाते थे | Dena Marriam जो एक सेविका थीं वह भी उनको खोजने के लिए जाती थीं और यह देखतीं कि माता श्री सीता जी जंगलों में घूम रही हैं ,ध्यान लगा रही हैं | श्री सीता माता जी जब और बड़ी हुईं तो उनका प्रकृति से जुड़ाव और भी दिखने लगा ,वे जब जंगलों में जातीं तो वहां से जड़ी-बूटियां लेकर आतीं | उनको प्राकृतिक रूप से समझ थी कि कौन सा वृक्ष, कौन सी पत्ती ,कौन सी जड़ किस तरह की बीमारी में उपयोग करनी चाहिए और यह बात धीरे-धीरे आसपास की क्षेत्रों में फैल गई तो बहुत से लोग उनसे अपनी चिकित्सा करने के लिए भी आते थे और लोग ही नहीं जब श्री सीता माता बच्ची के रूप में जंगल जातीं तो उन्हें कोई पशु – पक्षी दिखता जिसे कोई चोट लगी हो या किसी प्रकार की मदद की जरूरत हो तो वे उस पशु- पक्षी की भी चिकित्सा करती थीं और कई बार उनको लेकर महल में लेकर आ जाती थीं |

श्री सीता माता जी जिनका जन्म धरती से हुआ था ,उनका धरती के साथ जुड़ाव और समझ बचपन से ही सभी लोगों को दिखने लगी थी | किताब के अनुसार श्री सीता माता जी को लोग देखते थे कि वह पशु – पक्षियों और नदियों से भी बातें करती थीं | एक किस्सा है इस किताब में, जहां पर नदी में बाढ़ आई हुई थी और उस बाढ़ के प्रकोप में एक बैल बह गया था, तब श्री सीता माता जी उस नदी के पास जाती हैं और नदी के सामने खूब गुस्सा करती हैं कि तुमने कैसे उस बछड़े को ले लिया, वह किसान बेचारा अब क्या करेगा ,श्री सीता माता जी की शक्ति का अवतार थीं तो जब वे नदी के सामने जाकर इस प्रकार से बोलती हैं तो नदी में से एक रोशनी निकलती है जो उस नदी की आत्मा होती है ,इस किताब में ऐसा लिखा है की नदी श्री सीता माता जी से बातें कर रही है ,यह सब चीज देखकर सभी लोग बहुत ही ज्यादा आश्चर्यचकित थे और उनको लगने लगा था कि श्री सीता माताजी देवी का ही अवतार हैं | धीरे-धीरे श्री सीता माता जी और बड़ी होती गईं अब उनके शिक्षा-दीक्षा के बारे में राजा श्री जनक जी काम करते हैं | राजा श्री जनक जी उनको शास्त्रों की शिक्षा देते हैं और धीरे-धीरे श्री सीता माता जी शास्त्रों में बहुत पारंगत हो जाती हैं, इतनी पारंगत हो जाती हैं कि राजा श्री जनक जी इनके साथ शास्त्रार्थ करते थे और हार जाते थे महल में जब ऋषि मुनि आते थे तो वह भी उनके साथ शास्त्रार्थ करते थे और हार जाया करते थे |उस समय की एक बहुत बड़ी साध्वी श्री गार्गी जी भी राजा श्री जनक जी के दरबार में आती थीं | श्री गार्गी जी ने श्री सीता माता जी की प्रतिभा को देखा | राजा श्री जनक जी ने श्री गार्गी जी से बोला कि क्या आप सीता जी को शास्त्रों की ओर शिक्षा दे सकती हैं तो श्री गार्गी जी ने सहस्त्र स्वीकार कर लिया इस प्रकार श्री सीता माता जी को आगे की शास्त्रों की शिक्षा श्री गार्गी जी ने दी थी | इन सारी कहानियों और घटनाओं के साथ-साथ श्री सीता माता जी की जो ध्यान करने की इच्छा थी वह और प्रबल होती चली गई श्री सीता माता जी थोड़ी बड़ी भी हो गई थीं ,वह जंगलों में चली जाया करती थीं और घंटों-घंटों तक ध्यान किया करती थीं और लौटकर नहीं आती थीं ,सेवक सेविकाएं उन्हें ढूंढते रहते थे | किताब में एक बहुत ही अद्भुत किस्सा है उस किस्से के अनुसार एक बार श्री सीता माता जी जंगल चली गईं और बहुत समय तक नहीं लौट कर आईं जब Dena Merriam सेविका के रूप में गई उनको ढूंढने के लिए तो श्री सीता माता जी उन्हें एक जगह बैठी हुई मिलती हैं और वह ध्यान कर रही होती हैं लेकिन ध्यान की अवस्था में वह ऐसे बैठी होती हैं जैसे कि शरीर में कोई जान नहीं है ,ऐसा देखकर सेवक और सेविका बहुत ज्यादा घबरा जाते हैं और वह राजा श्री जनक जी को एक संदेश भिजवाते हैं कि आप जल्दी से जल्दी यहां जंगल में आ जाइए यहां पर एक बहुत बड़ी घटना हो रही है तो उस समय राजा श्री जनक साधु और ऋषि-मुनियों के साथ बैठे हुए थे उन सभी साधुओं और ऋषियों को लेकर राजा श्री जनक जंगल में जाते हैं ,वहां पर उन्हें श्री सीता माता बैठी हुई मिलती हैं ,राजा श्री जनक को समझ में आ जाता है और वह खुद भी ध्यान में चले जाते हैं और वे साधुओं से बोलते हैं कि आप लोग मंत्र का उच्चारण कीजिए काफी देर के बाद राजा श्री जनक और श्री सीता माता जी दोनों आंखें खोलते हैं राजा श्री जनक श्री सीता माता जी से पूछते हैं की पुत्री तुम कहां चली गई थी मैंने तुम्हें कई लोकों में ढूंढा ,आकाश में ढूंढा ,बहुत जगह पर ढूंढा लेकिन तुम मुझे कहीं नहीं मिली तुम कहां चली गई थी तो श्री सीता माता जी बोलती हैं कि मैं उनसे मिलने गई थी तो राजा श्री जनक जी पूछते हैं कि किससे मिलने गई थी तो श्री सीता माता जी कहती हैं कि मैं उनसे मिलने गई थी जिनके साथ मेरा विवाह होगा यहां पर श्री सीता माता जी श्री विष्णु जी के बारे में बोलती हैं कि मैं श्री विष्णु जी से मिलने गई थी राजा श्री जनक जी जब यह सुनते हैं तो उनको समझ में आ जाता है कि अब यह बच्ची जो शक्ति का रूप है ,अब इस बच्ची को पूरा समझ में आ चुका है कि यह बच्ची कौन है और अब इस अवस्था में यह बच्ची मेरे साथ नहीं रहेगी अब इसका समय आ गया है जाने का जिसके साथ इसके जीवन की यात्रा जुड़ी हुई है तो राजा श्री जनक को थोड़ा दुख भी होता है और अच्छा भी लगता है | दुख इसलिए होता है क्योंकि वह श्री सीता माता जी को बहुत प्रेम करते थे और अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि उन्हें पता था कि यह तो शक्ति की ही अवतार हैं, अब उनके विवाह का समय आने वाला है फिर इसके बाद श्री सीता माता जी के विवाह का भी प्रसंग शुरू होता है और विवाह के बाद वे अयोध्या जाती हैं |

श्री सीता माता जी और प्रभु श्री राम भगवान जी की विवाह कथा

मिथिला नरेश राजा श्री जनक ने अपनी पुत्री श्री सीता के विवाह हेतु स्वयंवर रचाया था जिसका निमंत्रण उन्होंने महर्षि विश्वामित्र को भी भेजा था उस समय प्रभु श्री राम और श्री लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में थे इसलिए उन्होंने सोचा कि श्री राम और श्री लक्ष्मण को भी मिथिला में उनके साथ चलना चाहिए | उसके बाद ऋषि विश्वामित्र श्री राम और श्री लक्ष्मण के साथ मिथिला नगर में पहुंचते हैं जहां पर राजा श्री जनक उनका अतिथि रूप में स्वागत करते हैं राजा श्री जनक ऋषि विश्वामित्र को कहते हैं कि उन्हें अति प्रसन्नता हुई कि आप हमारे नगर में मेरी पुत्री सीता को विवाह के लिए आशीर्वाद देने आए हैं | अगले दिन राजा श्री जनक के महल में दरबार लगता है जिसमें देवी श्री सीता का स्वयंवर रचाया गया था | देवी श्री सीता के स्वयंवर में एक से एक राजा और महाराज आए हुए थे | देवी सीता जैसी सुंदर नारी को पत्नी के रूप में पानी के लिए मनुष्य ही नहीं बल्कि कई देव तथा असुर भी मानव रूप धारण करके स्वयंवर में आए हुए थे |दरबार के मध्य में भगवान श्री शिव का धनुष रखा हुआ होता है | ऋषि विश्वामित्र के साथ श्री राम और श्री लक्ष्मण भी दरबार में पहुंचते हैं |

सभी राजाओं के आ जाने के बाद राजा श्री जनक उन्हें संबोधित करते हैं | राजा श्री जनक सभी को शर्त बताते हुए कहते हैं कि आप सभी राजाओं का मेरी पुत्री सीता के स्वयंवर में स्वागत है ,आज इस स्वयंवर को जीतने की शर्त यह है की जो भी महारथी सामने रखे भगवान श्री शिव के धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा उसी से मेरी पुत्री सीता का विवाह संपन्न होगा अतः आप सभी से अनुरोध है कि एक-एक करके आएं और भगवान श्री शिव के इस धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़कर अपनी शक्ति का परिचय दें | राजा श्री जनक की एक घोषणा सुनकर सभी राजा एक-एक करके आते हैं और धनुष उठाने का प्रयास करते हैं लेकिन भगवान श्री शिव के उसे धनुष को उठाना या प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर कोई भी राजा या महाराज उस धनुष को हिला तक नहीं पाया | बहुत समय बीत जाने के बाद जब कोई राजा उसे धनुष को हिला नहीं पाया तो राजा श्री जनक को क्रोध आ गया तो उन्हें लगने लगा कि कोई भी श्री शिव के धनुष को उठा नहीं पाएगा और उनकी पुत्री श्री सीता अविवाहित ही रह जाएगी ,यही सोचकर उन्होंने वहां उपस्थित सभी राजाओं की निंदा करनी शुरू कर दी कि उनमें से कोई भी लायक पुरुष नहीं है जो श्री शिव के धनुष को उठा सके राजा श्री जनक की ऐसी अपमानजनक बातें सुनकर श्री लक्ष्मण जी को क्रोध आ जाता है और वह इसे श्री राम तथा रघुकुल का अपमान समझते हैं | श्री लक्ष्मण जी राजा श्री जनक को ललकारने लगते हैं कि वह उनके तथा प्रभु श्री राम के सभा में होते हुए पूरी सभा को आयोग कैसे कह सकते हैं तब ऋषि विश्वामित्र जी ने श्री लक्ष्मण जी को शांत कराया और श्री राम को धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए बोला | श्री राम विनम्र भाव से ऋषि विश्वामित्र जी को प्रणाम करके श्री शिव जी के धनुष की ओर बढ़ते हैं तथा भगवान श्री विष्णु के अवतार प्रभु श्री राम श्री शिव जी के धनुष को प्रणाम करते हैं और उसके बाद केवल अपने एक हाथ से ही भगवान श्री शिव के धनुष को उठा लेते हैं जिसे देखकर वहां उपस्थित सभी राजा हैरान रह जाते हैं तभी श्री राम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़कर उसकी डोरी को खींच देते हैं जिससे वह धनुष टूट जाता है और स्वयंवर की शर्त के अनुसार देवी श्री सीता और श्री राम का विवाह हो जाता है | माता श्री सीता श्री राम को वरमाला पहना देती हैं और श्री राम को अपने पति के रूप में स्वीकार करती हैं यह देखकर राजा श्री जनक तथा उनके परिवार की खुशी की कोई सीमा नहीं रहती |

उसके पश्चात राजा श्री जनक ऋषि श्री विश्वामित्र को बधाई देते हुए उनका अभिनंदन करते हैं तथा श्री राम और देवी श्री सीता के विवाह के आगे के कार्यक्रम के बारे में पूछते हैं तो इस पर ऋषि श्री विश्वामित्र जी कहते हैं कि – हे जनक यह विवाह तो श्री शिव जी के धनुष के अधीन था धनुष टूटते ही विवाह तो हो चुका है लेकिन फिर भी आप अपने कुल के रीति रिवाज के अनुसार ही आगे का कार्यक्रम बनाइए | ऋषि श्री विश्वामित्र के कहने पर जनकपुरी से राजा श्री दशरथ के यहां संदेश भेजा जाता है तथा उसके बाद दोनों परिवारों के द्वारा विचार करके राजा श्री दशरथ के चारों पुत्रों का विवाह राजा श्री जनक की चारों पुत्री से निश्चित कर दिया जाता है , जिसमें श्री राम के साथ देवी श्री सीता ,श्री भरत के साथ श्री मांडवी, श्री लक्ष्मण के साथ श्री उर्मिला तथा श्री शत्रुघ्न के साथ श्री श्रुतिकीर्ति का शुभ विवाह संपन्न किया जाता है |

श्री सीता माता जी और प्रभु श्री राम की सन्तान

14 वर्ष की वनवास काटने के बाद प्रभु श्री राम माता श्री सीता और श्री लक्ष्मण वापस अयोध्या आए तो उसे वक्त पूरी अयोध्या खुशियों से झूम उठी थी उस खुशी में चार चांद लग गए थे जब प्रभु श्री राम और माता श्री सीता को यह पता चला कि वह माता-पिता बनने वाले हैं |श्री सीता जी के गर्भवती होने की खुशी में पूरी अयोध्या जश्न में सराबोर थी | लेकिन पूरी अयोध्या में यह चर्चा होने लगी कि श्री सीता लंबे समय तक रावण की लंका में रहकर आई हैं ऐसे में राजा श्री राम माता श्री सीता को महल में कैसे रख सकते हैं ,इन बातों की वजह से माता श्री सीता को महल का त्याग करना पड़ा था | गर्भवती माता श्री सीता को स्वयं श्री लक्ष्मण वन में छोड़ कर आए, वहां से महर्षि वाल्मीकि श्री सीता को अपने आश्रम में ले गए |महर्षि श्री वाल्मीकि के आश्रम में बड़े ही सामान्य तरीके से माता श्री सीता जीवन निर्वाह करने लगीं | कुछ समय पश्चात् माता श्री सीता ने एक पुत्र को जन्म दिया |

माता श्री सीता द्वारा संतान को जन्म देने की बात को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं | लोक कथाओं की मानें तो श्री सीता जी ने एक नहीं दो बालकों को जन्म दिया था लेकिन महर्षि श्री वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में इसका उल्लेख नहीं मिलता है | जिस पुत्र को श्री सीता जी ने जन्म दिया था उसका नाम श्री लव रखा गया था | एक बार की बात है माता श्री सीता आवश्यक लकड़ियां लाने जंगल जा रही थीं तो उन्होंने महर्षि वाल्मीकि जी से श्री लव का ध्यान रखने के लिए कहा उस समय महर्षि श्री वाल्मीकि किसी कार्य में व्यस्त थे तो उन्होंने सिर हिलाकर श्री लव को वहां रखने की बात कही | श्री सीता माता जी जब जाने लगीं तो उन्होंने देखा कि महर्षि अपने कार्य में व्यस्त थे तो उन्होंने श्री लव को अपने साथ ले जाना ही उचित समझा | जब माता श्री सीता श्री लव को अपने साथ ले जा रही थीं तो महर्षि ने नहीं देखा, कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि का ध्यान गया तो श्री लव को वहां नहीं देखकर वह परेशान हो गए ,उन्हें भय सताने लगा कि श्री लव को किसी जानवर ने तो नहीं उठा लिया और अब श्री सीता वन से वापस लौटेंगीं तो मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा , इसी डर से महर्षि श्री वाल्मीकि ने पास ही पड़े कुश को उठा लिया और कुछ मंत्र पढ़कर एक बालक को अवतरित किया जो दिखने में बिल्कुल श्री लव जैसा ही था और महर्षि ने सोचा कि जब श्री सीता वन से वापस लौटेंगीं तो मैं उन्हें यह श्री लव सौंप दूंगा | कुछ देर बाद जब माता श्री सीता वन से वापस लौटीं तो महर्षि ने देखा कि माता श्री सीता के साथ श्री लव भी थे यह देख महर्षि चकित रह गए लेकिन माता श्री सीता दूसरे श्री लव को देखकर बहुत खुश हो गईं क्योंकि इस बालक का जन्म कुश के द्वारा हुआ था तो उस बालक का नाम श्री कुश रखा गया और यह दोनों बालक श्री लव और श्री कुश भगवान श्री राम और माता श्री सीता के पुत्रों के रूप में जाने गए |

श्री सीता माता जी के श्री धरती माता जी में समाने की कथा

श्री वाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड के अनुसार प्रभु श्री राम के दरबार में श्री लव और श्री कुश,श्री राम कथा सुनाते हैं श्री सीता के त्याग और तपस्या का वृत्तांत सुनकर भगवान श्री राम ने अपने दूत के द्वारा महर्षि श्री वाल्मीकि जी के पास संदेश भिजवाते हैं, कि यदि श्री सीता जी का चरित्र शुद्ध है और वह आपकी अनुमति से यहां आकर जन समुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें और मेरा कलंक दूर करने के लिए शपथ करें तो मैं उनका स्वागत करूंगा | यह संदेश सुनकर महर्षि वाल्मीकि माता श्री सीता जी को लेकर दरबार में उपस्थित हुए | श्री सीता माता जी की दीन – हीन दशा देखकर वहां उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुख से भर गया और वे शोक से विकल हो आंसू बहने लगे | महर्षि वाल्मीकि जी बोले श्री राम मैं आपको यह विश्वास दिलाता हूं कि श्री सीता जी पवित्र हैं और सती हैं, कुश और लव आपके ही पुत्र हैं मैं कभी मिथ्या भाषण नहीं करता ,यदि मेरा कथन मिथ्या हो तो मेरी संपूर्ण तपस्या निष्फल हो जाए, मेरी इस साक्षी के बाद श्री सीता जी स्वयं शपथ पूर्वक आपको अपनी निर्दोषिता का आश्वासन देगी तत्पश्चात श्री राम भी ऋषि मुनियों और उपस्थित जन समूह को लक्ष्य करके बोल कि हे मुनि एवं विज्ञ जनों मुझे महर्षि वाल्मीकि जी के कथन पर पूर्ण विश्वास है परंतु यदि सीता स्वयं सबके समझ अपनी शुद्धता का पूर्ण विश्वास दे तो मुझे प्रसन्नता होगी | श्री राम जी का कथन समाप्त होते ही श्री सीता माता जी हाथ जोड़कर नेत्र झुकाए बोलीं कि मैं अपने जीवन में यदि श्री रघुनाथ जी के अतिरिक्त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिंतन ना किया हो तो मेरी पवित्रता के प्रमाण स्वरूप भगवती श्री पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें | श्री सीता माता जी के इस प्रकार शपथ लेते ही पृथ्वी फटी उसमें से एक सिंहासन निकला और उसी के साथ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुईं उन्होंने दोनों भुजाएं बढ़कर स्वागत पूर्वक श्री सीता माता जी को उठाया और प्रेम से सिंहासन पर बिठा लिया देखते ही देखते श्री सीता माता जी सहित सिंहासन पृथ्वी में लुप्त हो गया ,सारे लोग स्तब्धता से यह अद्भुत पूर्ण दृश्य देखते रह गए |

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