Shree Bharat Bhagwan : श्री भरत भगवान : श्री भरत भगवान का सम्पूर्ण परिचय : श्री सियाराम भगवान

श्री भरत भगवानजी किसके अवतार थे

श्री भरत भगवान जी को भगवान श्री हरि विष्णु के सुदर्शन चक्र का अवतार माना जाता है | प्रभु श्री राम के वनवास जाने के बाद उन्होंने ही रघुकुल का राज सिंहासन संभाला था | भगवान श्री हरि विष्णु के सुदर्शन चक्र का अवतार होने के कारण अयोध्या की रक्षा के लिए उनसे उपयुक्त और कोई हो ही नहीं सकता था | जिस प्रकार भगवान श्री राम की श्री लक्ष्मण जी ने सेवा की उसी प्रकार श्री भरत जी और श्री शत्रुघ्न जी ने भी उनकी सेवा की क्योंकि श्री भरत जी भी वनवास काट रहे थे | रामायण के अनुसार श्री भरत जी और श्री शत्रुघ्न जी के रूप में श्री सुदर्शन चक्र और उनके श्री शंख ने अयोध्या को भगवान श्री राम के वनवास से लौटने तक हर प्रकार के संकटों से बचाए रखा था ,श्री भरत जी और श्री शत्रुघ्न जी ने मिलकर पूर्ण निष्ठा के साथ अपने राज्य की सेवा की थी |

श्री भरत भगवानजी का जन्म और माता -पिता

श्री भरत भगवान जी महाराजा श्री दशरथ और महारानी श्री कैकेई के पुत्र हैं | श्री भरत भगवान जी का जन्म 11 जनवरी 5114 ईसा पूर्व सुबह 4:30 बजे हुआ था, उस समय पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न था |

श्री भरत भगवानजी का विवाह और सन्तान

श्री भरत भगवान जी की पत्नी का नाम श्री मांडवी जी था| श्री मांडवी जी राजा श्री जनक जी के छोटे भाई श्री कुशध्वज जी की पुत्री थीं ,वह एक साध्वी की तरह रहती थीं | श्री मांडवी जी भी नंदीग्राम में रहकर अपने पति के हर काम में उनका सहयोग करती थीं | श्री भरत भगवान जी के दो पुत्र हुए थे श्री तक्ष और श्री पुष्कल | अपने पुत्र श्री पुष्कल को उन्होंने पुष्कलावत नाम का राज्य सौंपा ,जो वर्तमान में पेशावर के नाम से जाना जाता है तथा श्री तक्ष को तक्षशिला का राजा नियुक्त किया गया |

श्री भरत भगवानजी को त्याग की मूर्ति क्यों कहा जाता है?

श्री भरत भगवान जी जिनका वंश इक्ष्वाकु वंश है , कुल रघुकुल ,पिता का नाम श्री दशरथ और माता का नाम श्री कैकई है, इनके परिजनों में इनके भ्राता श्री राम ,श्री लक्ष्मण और श्री शत्रुघ्न, माताएं श्री सुमित्रा, श्री कैकेई और श्री कौशल्या ,इनके गुरु का नाम गुरु श्री वशिष्ठ जी और गुरु श्री विश्वामित्र जी, उनकी जीवन संगिनी का नाम श्री मांडवी , शासन राज्य अयोध्या है | ये अपने बड़े भाई प्रभु श्री राम के लिए श्रद्धा और प्रेम दोनों के लिए जाने जाते हैं | इन्हें एक आदर्श राजा के रूप में भी जाना जाता है | इन्हें एक आदर्श पुत्र और एक आदर्श भाई के रूप में भी जाना जाता है | यह उस कालखंड के सबसे बड़े त्यागी के रूप में उभर कर सामने आए |

श्री वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान श्री राम के छोटे भाई थे श्री भरत | श्री वाल्मीकि जी के द्वारा श्री रामायण में वर्णित है कि अयोध्या के राजा श्री दशरथ जी की तीन पत्नियां थीं – श्री कौशल्या , श्री कैकई और श्री सुमित्रा | श्री कौशल्या जी से प्रभु श्री राम, श्री कैकेई जी से श्री भारत एवं श्री सुमित्रा जी से श्री लक्ष्मण और श्री शत्रुघ्न जी का जन्म हुआ था | श्री भारत भगवान जी का चरित्र समुद्र की भांति अगाध है बुद्धि सीमा से परे है और प्रेम से सराबोर है | लोक आदर्श का ऐसा अद्भुत समिश्रण अन्यत्र मिलना असंभव है | भ्रातृ प्रेम की तो यह सजीव मूर्ति थे | माताओं को भी बहुत ही अधिक प्रेम करते थे | ननिहाल से अयोध्या लौटने के पश्चात् जब इन्हें अपनी माता से अपने पिता के स्वर्गवास का समाचार मिला तब ये शोक से व्याकुल होकर कहते हैं कि मैने तो सोचा था कि पिताजी श्री राम का राज्याभिषेक करके यज्ञ की दीक्षा लेंगे ,किंतु मैं कितना बड़ा अभागा हूं कि मुझे बड़े भैया श्री राम को सौंपे बिना ही वे स्वर्ग सिधार गए ,अब प्रभु श्री राम ही मेरे पिता और मेरे बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूं उन्हें मेरे आने की शीघ्र सूचना दो या मुझको बताओ कि वह इस समय कहां पर हैं ,मैं उनके चरणों में प्रणाम करूंगा ,अब वही मेरे एकमात्र आश्रय हैं | जब श्री कैकेई जी ने श्री भरत को श्री राम के वनवास की बात बताई तब वे दुख की नदी में डूब गए | उन्होंने श्री कैकेई जी से कहा कि मैं समझता हूं कि लोभ के वशीभूत होने के कारण आप अभी तक यह ना जान सकीं कि मेरा श्री राम के साथ भाव कैसा है ,उनके प्रति मेरा प्रेम कितना है ,इसी कारण अपने राज्य के लिए इतना बड़ा अनर्थ कर डाला, मेरा जन्म ही नरक बन गया है ,यह सब अयोध्यावासी क्या कहेंगे मुझको कि बड़े भाई का अधिकार अपने आप ले लिया ,भरत ने कैसा कार्य किया है ,कैसा भाई है भरत ,यह वर मांगने से पहले माता आपकी जीभ क्यों नहीं कट कर गिर गई, इस प्रकार श्री कैकई को नाना प्रकार से बुरा – भला कहकर श्री भरत जी श्री कौशल्या जी के पास गए और उन्हें सांत्वना दी और उनसे कहा कि माता इस बारे में मेरे को कुछ नहीं पता और यह सब माता ने अपने आप ही किया है इसमें मेरी कोई गलती नहीं है | भरत ने गुरु श्री वशिष्ठ जी की आज्ञा से पिता की अंत्येष्टि क्रिया संपन्न की सबके बार-बार आग्रह के बाद भी उन्होंने राज्य लेना स्वीकार नहीं किया और श्री राम का पता लगाने को कहा | सभी चारों दिशाओं में खोज करें कि वह कहां पर हैं और कुछ समय बीतने के बाद पता चला कि श्री राम चित्रकूट स्थान पर हैं तो श्री भरत दल-बल के साथ श्री राम को मनाने के लिए चित्रकूट चल दिए | वे अपनी माता और पूरे परिवार के साथ में श्री राम की खोज में निकल पड़े | श्रृंगवेरपुर में पहुंचकर उन्होंने श्री निषाद राज को देखकर रथ का परित्याग कर दिया और श्री राम सखा गुह से बड़े प्रेम से मिले | प्रयाग में अपने आश्रम पर पहुंचने पर श्री भारद्वाज उनका स्वागत करते हुए कहते हैं कि भरत सभी साधनाओं का परम फल श्री सीताराम जी का दर्शन है और उसका भी विशेष फल तुम्हारे दर्शन हैं | आज तुम्हें अपने बीच उपस्थित पाकर हमारे साथ तीर्थराज प्रयाग भी धन्य हो गए |

श्री भरत को दल – बल के साथ चित्रकूट में आता देख श्री लक्ष्मण जी को उनकी नियत पर शंका हो गई वह क्रोध से परिपूर्ण होकर श्री राम से युद्ध की आज्ञा मांगने चले गए और कहा कि इतने से भी इनका पेट नहीं भरा ,यह हमें मारने के लिए यहां पर आ गए हैं ,मैं अभी इन्हें समाप्त कर देता हूं , सबसे बड़ी समस्या की जड़ तो यही हैं, इन्होंने ही माता श्री कैकेई को बहला- फुसला कर राज्य हथियाने का षड्यंत्र रचा है और अब इतने से भी इनका पेट नहीं भरा और यह हमें मारने के लिए यहां पर पहुंच गए हैं | उस समय श्री राम ने उनका समाधान करते हुए कहा कि लक्ष्मण भरत पर संदेह करना व्यर्थ है ,भरत के समान शीलवान भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है ,अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या श्री ब्रह्मा , श्री विष्णु और श्री महेश का भी पद प्राप्त करके श्री भरत को मद नहीं हो सकता और कुछ समय के बाद श्री भरत श्री राम से मिलने पहुंच गए | चित्रकूट में भगवान श्री राम से मिलकर पहले श्री भरत उनसे अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं ,परंतु जब वे देखते हैं कि उनकी रुचि कुछ और है तो श्री भरत भगवान श्री राम की चरण पादुका लेकर अयोध्या को लौट जाते हैं | वापस लौटकर वह भी अपने सभी राजसी सुखों का त्याग कर देते हैं ,नंदीग्राम में तपस्वी जीवन व्यतीत करते हैं ,वह एक झोपड़ी में विश्राम करते हैं और पुआल के बिछौने पर सोते हैं | श्री भरत,श्री राम के आगमन की 14 वर्षों तक प्रतीक्षा करते हैं |भगवान श्री राम को भी उनकी दशा का अनुमान है वह वनवास की अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलंब किए बिना अयोध्या पहुंचकर उनके विरह को शांत करते हैं | श्री राम भक्त और आदर्श भ्रातृ प्रेम के आदर्श उदाहरण श्री भरत धन्य हैं | वनवास समाप्त करके प्रभु श्री राम अयोध्या वापस लौट आते हैं और अयोध्या का राज्य संभालते हैं और श्री भरत उनकी सेवा में और राज्य कार्य में उनका हाथ बंटाते हैं |

श्री भरत भगवानजी ने अपनी मानव देह लीला कैसे समाप्त की?

एक कथा के अनुसार जब श्री यमराज जी प्रभु श्री राम जी से मिलने आए तो उन्होंने उनसे यह वचन लिया था कि उन दोनों के बीच में जो कुछ भी बात हो वह कोई और ना सुने और यदि सुन तो प्रभु श्री राम उसे मृत्यु दंड दे देंगे प्रभु श्री राम ने श्री लक्ष्मण जी को बुलाकर द्वार पर पहरा देने के लिए कहा और उनसे यह भी कहा कि जब तक वे दोनों बातें कर रहे हैं बीच में कोई नहीं आना चाहिए अन्यथा वे उसे वह मृत्युदंड दे देंगे,उसके पश्चात श्री यमराज जी ने प्रभु श्री राम से बात करने लगे उन्होंने प्रभु श्री राम से कहा कि वे श्री ब्रह्मा जी की आज्ञा अनुसार यहां आए हैं और श्री ब्रह्मा जी ने यह कहा है कि प्रभु पृथ्वी लोक पर रहने की आपकी अवधि अब समाप्त हो चुकी है और अब आपको बैकुंठ धाम वापस आना होगा , इस पर प्रभु श्री राम जी ने उनसे कहा कि आप श्री ब्रह्मा जी से कह दीजिएगा कि यदि पृथ्वी लोक पर मेरे रहने की अवधि समाप्त हो चुकी है तो मैं वापस बैकुंठ धाम लौट आऊंगा ,इधर श्री लक्ष्मण भगवान जी द्वार पर पहरा दे रहे थे तभी वहां श्री दुर्वासा ऋषि आ गए और वह प्रभु श्री राम से मिलने की जिद करने लगे तो श्री लक्ष्मण जी ने उनसे कहा कि प्रभु श्री राम अभी किसी महत्वपूर्ण कार्य में व्यस्त हैं इसलिए वह उनसे नहीं मिल पाएंगे , इस पर श्री दुर्वासा ऋषि ने उनसे कहा कि यदि वह उन्हें प्रभु श्री राम जी से नहीं मिलने देंगे तो वह पूरी अयोध्या को भस्म कर देंगे इस पर श्री लक्ष्मण जी ने सोचा कि इससे अच्छा है कि मैं ही मृत्यु दंड ले लूं कम से कम प्रजा तो बच जाएगी तो उन्होंने अंदर जाकर प्रभु श्री राम से कहा कि श्री दुर्वासा ऋषि आपसे मिलने आए हैं श्री दुर्वासा ऋषि से मिलने के बाद प्रभु श्री राम को अपना वचन पूरा करना था, उन्होंने महर्षि वशिष्ठ जी से इस के बारे में बात की ,कि वह अपने प्रिय भाई को मृत्यु दंड कैसे दे सकते हैं इस पर महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा कि वह श्री लक्ष्मण जी का त्याग कर दें साधु का त्याग भी साधु के लिए मृत्युदंड के बराबर ही होता है, इस पर प्रभु श्री राम ने श्री लक्ष्मण जी का त्याग कर दिया और श्री लक्ष्मण जी अपने भाई श्री राम जी से बिछड़ कर नहीं रह पाए और उन्होंने श्री सरयू नदी में जाकर अपना शरीर त्याग दिया |

श्री लक्ष्मण जी ने अपने भ्राता श्री राम जी के वचनों को निभाते हुए राज्य में रहने की बजाय नदी में जल समाधि ले ली | अपने प्रिय भ्राता श्री लक्ष्मण जी के जल समाधि के बाद ही प्रभु श्री राम जल समाधि लेने का निर्णय लेते हैं ,लेकिन तभी यह सूचना उनके अन्य भ्राता श्री भरत और श्री शत्रुघ्न जी को भी मिल जाती है वे दोनों नम आंखों से प्रभु श्री राम जी से बैकुंठ धाम वापस न जाने की विनती करते हैं ,परंतु प्रभु श्री राम नहीं माने ,उन्होंने अपने दोनों भ्राता को समझाते हुए कहा कि अब उनका धरती पर समय समाप्त हो चुका है और अब उन्हें जाना ही होगा | बड़े भाई की बात सुनकर श्री भरत और श्री शत्रुघ्न भी जिद पर अड़ गए कि अगर वह नहीं रहेंगे तो वह भी उनके साथ ही जाएंगे, बहुत जिद के बाद प्रभु श्री राम ने उनकी विनती स्वीकार कर ली और इस तरह उन दोनों ने भी भगवान श्री राम के साथ ही सरयू नदी में जल समाधि ले ली | कुछ देर के बाद नदी के भीतर से ही भगवान श्री विष्णु जी प्रकट हुए और उन्होंने अपने भक्तों को दर्शन दिए इस तरह उन्होंने अपना मनुष्य स्वरूप त्याग कर वास्तविक स्वरूप ले लिया |

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